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  कमल    -    जलज, पंकज,  नीरज, तोयज, सरोज, सरोरूह, सरसिज, सत्दल, उत्पल, वारिज, अम्बुज, पयोज, अरविंद। जल     -      नीर, तोय, पय, वारि, क्षी...

मातृभाषा - हिंदी व्याकरण

हिंदी व्याकरण प्रतियोगी परीक्षाओं में आमतौर पर पूछा जाने वाला एक महत्वपूर्ण विषय है इसके अंतर्गत संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, विशेष्य, कारक, क्रिया, क्रियाविशेषण, रस, छंद, अलंकार, समास, पर्यायवाची, संधि, प्रत्यय, उपसर्ग, परसर्ग पूछा जाता है। हिंदी व्याकरण के महत्वपूर्ण विषयों को ध्यान में रखकर सम्पूर्ण पाठ्यक्रम यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। आशा है आप लाभान्वित होंगे।

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संज्ञा और उसके भेद

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अलंकार



काव्यगत् सौन्दर्य बढ़ाने वाले तत्वों को अलंकार कहते है, जिस प्रकार आभूषण स्त्री कि सुन्दरता बढ़ा देते हैं ठीक उसी प्रकार अलंकार काव्य की शोभा बढ़ा देते हैं।


जैसा कि हम सभी जानते है अलंकार का शाब्दिक अर्थ है आभूषण जिस तरह स्त्रियां खुद सजाने के लिये आभूषण का प्रयोग करती है, ठीक उसी प्रकार काव्यगत् सौन्दर्यों को बढ़ाने के लिये अलंकार का प्रयोग किया जाता है ।

अलंकार के दो भेद है -
1. शब्दालंकार

2. अर्थालंकार


शब्दालंकार - जहाँ शब्दों के द्वारा काव्य में सौन्दर्य या चमत्कार उत्पन्न होता हो वहां शब्दालंकार होता है ।

शब्दालंकार 7 प्रकार के होते है इनमे अनुप्रास, यमक, श्लेष तथा वक्रोक्ति मुख्य हैं ।


अर्थालंकार - जहाँ काव्य मे अर्थ के कारण रमणीयता बढती हो वहां अर्थालंकार होता है अर्थात काव्यगत सौन्दर्य जब अर्थ के कारण बढ़ता हो तो वहां अर्थालंकार होता है।

अर्थालंकारो की कोई निश्चित संख्या नही है कुछ प्रमुख आगे दिये जा रहे हैं।


शब्दालंकार के भेद-

1. अनुप्रास- जहाँ किसी पंक्ति के शब्दो मे एक ही वर्ण के बार-बार आने से काव्यगत सौन्दर्य बढता हो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है ।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।

यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के पाँच भेद होते है - 1. छेकानुप्रास, 2. वृत्यानुप्रास, 3. लोटानुप्रास, 4. श्रृत्यानुप्रास, 5. अन्त्यानुप्रास ।

ईनमे अग्रलिखित महत्वपूर्ण है ।




छेकानुप्रास- जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।




यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।



वृत्यानुप्रास- जहाँ किसी वरण की आवृति वृतियों के अनुसार हो वहाँ वृत्यानुप्रास होता है।


वृत्तियां तीन प्राकार की होती हैं - (क) कोमला (ख) परुषा और (ग) उपनागरिका।


जिस रचना मे य, र, ल, व, स आदि कोमल अक्षरो कि प्रधानता हो वहाँ कोमलता होती है,


जिस रचना मे ओज की व्यंजना वाले कठोर शब्द आयें जैसे ट वर्ग के वर्ण अथवा दित्य वर्ण वहाँ परुषा वृत्ति होती है। उपनकरिका वृत्ति में सानुनासिक वर्ण आते हैं। तीनों के उदाहरण निम्न हैं।


1. कूलनि में केलि में कछारन में कुजन में

क्यारिन में कलित कलीन किलकंत है।

वीथिन में ब्रज में नबेलिन में बेलिन में

बनन मे बागन में बगर्यो बसंत है।


कोमल वर्णों कि आवृति हुयी है


2. चरन चोट चटकन चकोट अरि उप सिर वज्जत।

  विकट कटत विद्दरत वीर वारिद जिमि गज्जत।


परुषावृति


3. रघुनंदन आनंद कंद कोशल चंद दशरथ नंदनम्।

मे सानुनासिक वर्णेो कि आवृति हुई है, अतः यह उपनागरिका वृत्यानुप्रास है




लाटानुप्रास- जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।



यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण -
पूत सपूत तो क्यों धन संचिय?

         पूत कपूत तो क्यों धन संचिय?

यहाँ कई शब्द दो बार आये है - पूत, तो क्यों, धन, संचिय । प्रथम बार उसका अन्वय सपूत और दूसरी बार कपूत के साथ है ।




















Arun Dev Yadav अरुण देव यादव पर मार्च 07, 2017
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